रविवार, 24 जुलाई 2011

हम वो कहाँ जो हार मान लें..........................



एक  बार  फिर  हार  गया  मैं ,
पर  मन  मेरा  नहीं  हारा ...
अनुभव  इक  और  मिला  मुझको ,
अब  पा  लूँगा  मैं ये  जग  सारा ...
उम्मीद  टूटती  औरों  की  है ,
हम  तो  बड़े  दिल  वाले  हैं ....
हिम्मत  रख  आगे  बढ़ते  जो ,
हम  तो  वही  मतवाले   हैं  ...


लाखों  अड़चन  आती  पग  में ,
पर  विश्वास  नहीं  डिगता ...
मुझको  दुर्बल  करती  रस्में ,
पर  लक्ष्य  से  ध्यान  नहीं  हटता ...
हम  वो  कहाँ  जो  थककर  रुक  जाएँ ,
हम  शिखा  जीतने  वाले  हैं ...
हिम्मत  रख  आगे  बढ़ते  जो ,
हम  तो  वही  मतवाले  हैं ....


बार  बार  गिरते  हैं  हम  पर  ,
उठना  गिरने  से  ही  सीखा ...
बार  बार  चोटिल  हैं  पर ,
चोट  का  दर्द  नहीं  तीखा ...
हम  वो  कहाँ  जो  हार  मान  लें ,
हम  धरा  चीरने  वाले  हैं  ...
हिम्मत  रख  आगे  बढ़ते  जो ,
हम  तो  वही  मतवाले  हैं........
  
                                         - नवीन  कुमार  सोलंकी  



बुधवार, 20 जुलाई 2011

उम्मीद...................................


भले  छा  रहा  अँधेरा ,
लुप्त  हो  रहा  प्रकाश ,
भले  धुंधला  हो  चला हो  ,
तेरी  आशा  का  अभिलाष..

चढ़ते - चढ़ते शिलाओं पर ,
घुटनों  पे  भले  जख्म  के  निशान ,
रुकना नहीं  है  एक  पल  भी ,
जब  तक  ना  मिल  जाये  मुकाम ..

कुछ  बची - खुची आशा की किरण   ,
टूटे  कलश  से  निकाल  कर ...
पकड़  ले  मंजिल  की  राह ,
हवा  से  जुनूँ  उधर  लेकर ,

"कदमों  का  आकार  न  देख ,
जज्बों  का  तू  रुख  ले  तोल ...
अपने  कद  का  अंदाजा  रख ,
ये राह नहीं  ,पर  तू  अनमोल ..."





गिरता  है  तो  चल  उठ  फिर  से ,
अपने  सपनों  का  अम्बर  चुन ..
रुकना  नहीं है तुझको  राही  ,
सुन -सुन  मंजिल  की  पुकार  सुन ...

देख  तो  ये  विजय  पताका ,
तुझ  बिन कैसी  तन्हा  सी  है ...
अंदाजा  क्या ,तेरी  मंजिल 
तुझ  बिन  कैसी सुनसान सी  है ...

कर  आह्वान  उस  उमंग  का ,
जो सुषुप्त बीते  वक़्त  से ..
एक  नयी  शुरुआत  अभी  ,
हौसलों  के  बुलंद कदमों  से ...



कभी  न  कभी  इस  शिला  पर 
तेरे  घुटनों  की  सूरत  बनेगी ..
उम्मीद  है कि   जल्दी  ही ,
मंजिल  तुझको  मिलेगी ...
                                              -     नवीन कुमार सोलंकी                       

सोमवार, 18 जुलाई 2011

जज़्बात..................................



"हर जगह जो खिल रहे ;अल्फाज़ हैं तेरे -मेरे....
    बेवक्त ही जो चल बसे ;वो ख्वाब हैं तेरे - मेरे ....
       तू भी तो ज़ालिम ,रहा ना ;मेरी जिरह के वास्ते....
         जो कुछ बचा है आज वो; 'जज़्बात' हैं तेरे-मेरे......"
                                                                   -नवीन कुमार सोलंकी

रविवार, 17 जुलाई 2011

नृशंस..................................

जलियावाला  काण्ड  भूलते 
सदियाँ   बीती  पर  घाव  हरे ...
पर  देने  को  नित  नए  घाव 
प्रशासन  में  भ्रष्टाचारी   भरे ...

जब  देर  रात  की  निद्रा  में 
विलीन  हो  गए  थे  योगी  दल ...
सत्ता  के  घमंड  में  चूर  हुए 
भोगी  आ  पहुचे  ले  दल  बल ...


जानेगा दर्द  भला  वो क्यों 
जिसने दौलत  डॉलर  में  खायी ...
पर  देशभक्त  स्वामी  जी  ने 
भक्ति  की  कीमत  बड़ी  चुकाई ....

क्या  कह दूँ  इसे  नृशंस  प्रहार 
मानव  का  मानवता  पर  बस ...
क्या  छिप  जाऊ  फिर  से   कोने  में
फिर  से  कहकर  ये  अमावास ...


अब  तक  तो  सहता  आया  मैं ,
कुछ  भी  उनसे  न  कहता  था ..
भ्रष्टाचारी  के  दल  में,
चुप  चुप  मर  मर  के  जीता  था ...

आज  अगर  संबल  मुझको  तो ,
चल  दूंगा  मैं सीना  ताने ...
इस  घर  के  दूषित  लोगों  को ,
कर  दूंगा  खुद   ही  बेगाने ...


जब  बात  राष्ट्र की आती  है
तो  क्या  तेरा  और  क्या  मेरा ..
ये  मातृभूमि की  वेदी  है 
रक्षा  करना  कर्तव्य  मेरा ....

गर  बहता  है  खून  रगों  में  तो
खौलना इसका  स्वाभाविक  है ...
पानी  है  तो  कोई  और  नहीं 
तू  ही  तो  वो  अपमानित  है ....


हम  निबल  नहीं  हैं  शांत  भले ,
हक़  को  ऊँची  आवाज  उठे ..
जो  चोट  लगे  स्वाभिमान  पर  ,
उठ  जाये  उंगली  फिर  हाथ  उठे ...

राष्ट्र  हितों  के  आड़े  हमने 
ना  आने  दी  आँखों  की  नमी ...
हक़  को  अपने  हमने जीती 
आजादी  से  लेकर  कारगिल  की  जमीं...


चल  आजा  फिर  तू , संग  चलें
एक  नया  आह्वान  करें  ...
भारत  नव  निर्माण  को  हम .
आओ  मिलकर  मार्ग  प्रशस्त  करें ...
                                - नवीन  कुमार  सोलंकी